आस्था, परम्परा और और केरल का सबरीमाला मंदिर विवाद

भारतीय समाज में आस्था और परंपरा को बहुत महत्व दिया जाता है| यह हमारी आस्था ही है कि हम पत्थर को भी भगवान मान कर पूजते है|  हमारी आस्था की जड़े इतनी गहरी है कि विज्ञानं और आधुनिक तर्कशात्री भी इसे नहीं डिगा पाए हैं | अतः संबैधानिक संस्थाओ को तब तक हमारी किसी आस्था  और परम्पराओं पर प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहिए जब तक कि वह अमानवीय न हो |

हिन्दू सनातन धर्म में प्रचलित कुछ अमानवीय कुप्रथाओ को बंद किया गया, जैसे सती प्रथा जिसमे पति की मौत होने पर महिला को जबरदस्ती चिता में जला दिया जाता था | इसके अलावा ‘तलाक’ जिसका हिन्दू ग्रंथो में कही उल्लेख नहीं मिलता, ( कम से कम हमारे पढ़े हुए ग्रंथो में तो बिलकुल नहीं ) किन्तु कुछ पतियों के क्रूर अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम में तलाक को मान्यता प्रदान की गई और यह एक पूर्णतया उचित कदम था |

 तीन तलाक को भी माननीय सुर्प्रीम कोर्ट ने अनुचित बताया और बर्तमान सरकार ने विपक्षी पार्टियों द्वारा संसद में समर्थन नहीं देने के चलते एक अध्यादेश के द्वारा तीन तलाक  को असंबैधानिक घोषित किया और तीन तलाक देने वालो के लिए सजा का प्रावधान किया ! सुप्रीम कोर्ट और सरकार का यह कदम मुस्लिम माताओ और बहनो के लिए किसी बरदान से कम नहीं था, अन्यथा वे वेचारी हमेशा इस डर के साये में जीती थी कि क्या पता कब बिना किसी कसूर के तीन बार ‘ तलाक’ शब्द बोलकर उन्हें उनके छोटे छोटे मासूम बच्चो के साथ दर- दर  की ठोकरे खाने के लिए घर से बाहर निकाल दिया जाय ! यहाँ तक की खत से और फ़ोन पर भी तीन तलाक दिया जाने लगा था |

 अब केरल के विश्व प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर में महिलाओ के प्रवेश के बारे में हाल के कोर्ट के फैसले को ही ले लीजिये | कोर्ट के फैसले के प्रति सम्मान रखते हुए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अगर सबरीमाला मंदिर में १० साल से ५० साल तक की महिलाओं के नहीं जाने की परंपरा है तो इस परंपरा में कौन सी अमानवीय बात है? हर धर्म, स्थान और संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट परंपरा होती है और वही उसकी खूबसूरती भी होती है और इसलिए अगर कोई परम्परा जब तक अमानवीय न हो तब तक उसे नहीं छेड़ा जाना चाहिए !

जो १० साल साल से ५० साल की महिलाये मंदिर की परंपरा को तोड़कर भगवान का दर्शन करने जाना चाहती है क्या उनके अंदर वाकई श्रद्धा का एक अंश मात्र भी है या नहीं, इसमें संदेह होता है? वे कोर्ट के आदेशानुसार दर्शन को जरूर जा सकती है, पर क्या उन्हें लाखो करोडो लोगो की भावनाओ को कुचलना चाहिए और किसी धरोराह की महान परंपरा को इस तरह तार -तार करना चाहिए? क्या ऐसा करने से भगवान खुश होंगे? वे खुद ही सोचे और फैसला करे ! यह परंपरा कही से भी महिला विरोधी नहीं है !
 
दुर्भाग्य से कुछ लोगों का सवभाव ऐसा होता है जो बिना वजह सिर्फ चर्चा में बने रहने के लिए अनावश्यक विवाद को हवा देते है और हजारो वर्षो से चली आ रही परम्पराओं को बिना सोचे -समझे तोड़ने में ही अपनी बुद्धिमानी समझते हैं! निश्चित रूप से अगर कोई प्रथा अमानवीय है तो उसे रोका जाना चाहिए, मगर हर परम्परा को आधुनिकता के नाम पर विरोध करना सिर्फ सस्ती लोकप्रियता हासिल करने से अलावा और कुछ नहीं है और ऐसे लोगों की बातों को महत्व नहीं देना चाहिए! 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *