आखिर कुछ लोगो को बालने की आजादी खतरे में क्यों लगती है?

आज कल कुछ बामपंथी इतिहासकार, पत्रकार, नेता, और कुछ टीवी  चैनल, अपने अधिकांश टीवी डिबेट, लेखों, इंटरव्यू और सेमिनारों में ये बात चिल्ला- चिल्ला कर कहते है की इस समय भारत में बोलने की आजादी खतरे में है? पर क्या वाकई बोलने की आजादी खतरे में है? उनकी  बातों को सुनकर तो ऐसा लगता है कि जैसे वर्तमान सरकार की नीतियों की या सत्तारूढ़ पार्टी के किसी नेता की कही गई बात का विरोध करने पर या तो उन्हें जेल में डाल दिया जाता है या उनके मुँह पर टेप लगा दिया जाता है ताकि वे उनके खिलाफ और न बोल सके?

आखिर कुछ लोग ये बात क्यों कहते हैं की बोलने की आजादी खतरे में है? सवाल ये है कि आज  कुछ पार्टियों के राष्ट्रीय स्तर से ले करके  ब्लॉक स्तर तक के नेता भी देश के प्रधानमंत्री को गालियां तक दे रहे है और  लोकतान्त्रिक ढंग  से चुने गए मोदी जी को लोकतंत्र का दुश्मन और तानाशाह  बता रहे हैं फिर भी वे “बोलने  की आजादी  खतरी में है” ऐसा क्यों कह रहे है?

आजादी के बाद राजनैतिक रूप से भारत में भले ही कांग्रेस का शासन रहा हो किन्तु राष्ट्रीय महत्व के अधिकांश बौद्धिक और शैक्षणिक संस्थानों पर बामपंथियों का ही एक क्षत्र राज्य रहा है! वे अब तक सरकार द्वारा उपकृत भी होते रहे है! अब तक वे ही लोग यह तय करते आये हैं कि इतिहास  में क्या पढ़ाया जाय और क्या नहीं! अब तक वे लोग ही यह तह करते आये हैं कि इतिहास में किस खलनायक को नायक बनाया जाय और किसको इतिहास से लगभग मिटा दिया जाय! वे बामपंथी इतिहासकार ही थे जिन्होंने जानबूझकर  आर्यों को दूसरे देश का और द्रविणों को भारत का मूल निवासी वताकार उत्तर और  दक्षिण  भारतीयों में भेद पैदा करने का प्रयास किया! किन्तु इस साल हरियाणा के बरनावत में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा हुए खुदाई में मिले रथ के अवशेष से यह बात 100 फीसदी  सिद्ध हो गयी कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे ! बामपंथी अब ये जान गए हैं कि अब इतिहास का असली और बैज्ञानिक स्वरुप सामने आएगा जिसमे कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी लोगो को आर्य कहा जायेगा और इसीलिए वे अभी से ही यह चीखना शरू कर दिए हैं कि अब  इतिहास को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा के अनुसार लिखा जायेगा!

अब तक बामपंथी छात्र नेता ही ज्यादातर ये सुनिश्चित करते रहे हैं कि शैक्षणिक परिसर में ज्यादातर ऐसे मुद्दों पर ही सेमीनार का आयोजन किया जाए जिससे हिन्दू /सनातन धर्म की निंदा किया  जा सके और हिन्दुओ को दलित और नॉन-दलित में विभाजित किया जा सके ! जवाहर  लाल नेहरू  विश्वबिद्यालय में हिन्दुओ की आराध्य देवी माता दुर्गा का अपमान और महिषासुर दिवस मनाकर एक राक्षस को भगवान बनाया जाना इसकी एक कड़ी मात्र थी! किन्तु जब माँ दुर्गा के भक्त  हिन्दुओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो बड़ी ही खूबसूरती से बामपंथी छात्रों ने उसे बालने  की आजादी  पर हमला करार दे दिया! भला दुनिया में ऐसा कौन सा धर्म या संप्रदाय  होगा  जो अपने आराध्य का अपमान और अपनी आस्था पर ऐसा क्रूर प्रहार होते देख कर उसका विरोध नहीं करेगा? आखिर ऐसा कौन सा देशभक्त होगा जो “भारत तेरे टुकड़े होंगे” का नारा लगाने वालो का विरोध नहीं करेगा! लेकिन जब भी कोई देशभक्त उनकी इस हरकत का विरोध करता है या पुलिस उनके खिलाफ देशद्रोह का मुक़दमा दायर करती है तो वे यह कहते  हैं कि “देश में बोलने की आजादी खतरी में है”! किन्तु अगर अगर ऐसे नारे लगाने वालो का विरोध करना देश में बोलने की आजादी को खतरे में डालना है तो हर भारतीय को इस तरह की बोलने की आजादी को खतरे में डालना चाहिए!

मनुस्मृति हिन्दुओं का एक प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है जिसे लगभग 99% हिन्दुओ ने कभी पढ़ा भी नहीं होगा! यह ग्रन्थ लगभग ५ से १० हजार साल पहले लिखा गया होगा, किन्तु कालांतर में कुछ लोगों ने इस ग्रन्थ को बदनाम करने के लिए इसमें कुछ महिला और दलित विरोधी प्रक्षिप्त अंश डाल दिए! हलाकि ये प्रक्षिप्त अंश मनुस्मृति के मूल अंग नहीं है किन्तु फिर भी कुछ देर के किये यदि यह मान भी लिया जाय कि ये प्रक्षिप्त अंश मनुस्मृति के ही अंग तो भी हजारो साल पहले तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर लिखे गए ग्रन्थ के आधार पर चलना उचित है या नहीं ये प्रगतिशील हिन्दू समाज का हर व्यक्ति अच्छी तरह से जनता है! फिर भी कुछ विश्वबिद्यालयोँ में इस ग्रन्थ के ऊपर सेमिनार होते हैं, और उसके आधार पर हिन्दू समाज के एक बर्ग को जो चीख- चीख कर दलित बिरोधी बताया जाता है, यहाँ तक कि ग्रन्थ के कुछ पन्नों को जलाया भी जाता है! किन्तु यहाँ यह आश्चर्यजनक बात यह है कि अगर किसी अन्य धर्म के किसी ग्रन्थ में चाहे कितनी ही अमानवीय और महिला बिरोधी बातें क्यों न लिखी गयी हो उसके ऊपर उन्हें सेमिनार करने तक की हिम्मत नहीं होती है और यही है इन कथित बामपंथी छात्र नेताओं की असली हकीकत!

अब जब सरकार बामपंथी विचारधारा के आधार पर नहीं बल्कि योग्यता के आधार पर बौद्धिक संस्थानों और विश्विद्यालयों में नियुक्ति करने लगी है तो बामपंथी बुद्धिजीवी तिलमिला गए और सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया! उन लोगो ने सरकार को बदनाम करने के लिए अपने अवार्ड तक वापस कर दिए! अब ये भी आरोप लगाया जाता है कि सरकार अपने संस्थानों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोगो को भर रही है! उनसे ये बात जरूर पूछना चाहिए  कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे किसी संगठन का योग्य ब्यक्ति किसी संस्थान में नियुक्त क्यों नहीं हो सकता? क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक कोई देश विरोधी संगठन है? और उन्हें अगर उनकी नियुक्ति से इतनी ही आपत्ति है तो फिर वे उसके खिलाफ कोर्ट में क्यों नहीं जाते!

कथित बामपंथी बुद्धिजीवी इसलिए भी  तिलमिलाकर सरकार पर “बालने की आजादी खतरे में है” का आरोप  लगा रहे हैं क्योंकि अब उनकी  गलत  बातों का पहली  बार इतना विरोध हो रहा है! कुछ साल पहले ही दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्यविद्यालय में अफजल गुरु के ऊपर हुए कार्यक्रम का तीव्र विरोध हुआ जिसकी बामपंथियों ने कल्पना भी नहीं की थी! इसके आलावा जागरूकता के कारण अब केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में उनका प्रभुत्व धीरे-धीरे कम होने लगा है! अब “नक्सलबाद देश के लिए गंभीर खतरा” आदि विषयो पर भी कैम्पस में सेमिनार होने लगे हैं, तो जाहिर है उनका तिलमिलाना स्वाभाविक है क्योकि नक्सलवादियों के  समर्थक के रूप में आखिर वे ऐसे विषयों पर सेमिनार वह भी कैंपस में जिसे वे अब तक अपनी जायदाद मानते थे, कैसे पचा सकते हैं! वे “बोलने की आजादी खतरे में है” ऐसा सिर्फ इसलिए कह रहे हैं कि पहली बार कोई उनकी अनर्गल बातों का इस तरह जबरजस्त विरोध क्यों कर रहा है, पहले की तरह चुपचाप सुन क्यों नहीं लेता! अब मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए जब भी कोई उनकी गलत बातो का विरोध करता है तो मज़बूरी में उसे वो “बोलने की आजादी खतरे में है” ऐसा कहकर प्रचारित कर रहे हैं!

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