अरविन्द श्रीवास्तव
श्रीमद्भागवत गीता न केवल भारतवर्ष का बल्कि संपूर्ण मानव जगत का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है | मनुष्य मात्र को अपना जीवन किस तरह से जीना चाहिए, अगर इसको जानना है तो इसके लिए गीता से बढ़कर और कोई ग्रंथ नहीं है | गीता मूल रूपसे संस्कृत भाषा में है जिसकी व्याख्या कई संतों और महापुरुषों ने विस्तृत रूप से की है | गीता में कुल 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं जिसकी व्याख्या को पढ़ने में घंटो लग जाते हैं और इसके अलावा गीता के भावार्थ को ठीक से समझना भी सबके बस की बात नहीं है | प्रस्तुत लेख ” श्रीमद्भागवत का सरल रहस्य” कम से कम शब्दों में गीता के सार को व्यक्त करने का प्रयास है जिससे गीता के गूढ़ रहस्य को आसानी से समझा जा सके |
गीता का आरम्भ उस समय से होता है जब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाते हैं | चूँकि अर्जुन एक महान और नेक दिल मनुष्य थे इसलिए उस समय विरोधी पक्ष में अपने बंधु-बांधवों एवं रिश्तेदारों को देखकर दुःख से भर जाते हैं और भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे भगवन मैं अपने स्वजनों के साथ युद्ध नहीं करना चाहता क्योंकि इन्हें युद्ध में मारकर मैं किसी भी प्रकार से अपना हित नहीं देखता हूं | इसके बाद अर्जुन ने अपना धनुष और बाण नीचे रख दिया और विषाद-युक्त होकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए | अर्जुन को इस प्रकार दुःख से द्रवित देखकर भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन, तुम बिना वजह इस समय मोह से ग्रस्त हो रहे हो, क्योंकि इस संसार में जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है | मनुष्य अपने जन्म से पहले भी नहीं था और मृत्यु के बाद भी नहीं रहेगा, केवल उसका अस्तित्व केवल दोनों के बीच में है, इस लिए जो लोग भी अभी हैं उनके लिए पंडित लोग ( यहाँ पंडित का अर्थ विद्वान है ) शोक नहीं करते हैं | आगे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, वास्तव में न तो कोई किसी को मारता है और न ही कोई मरता है, अगर तुम अपने विरोधियों को नहीं भी मरोगे तब भी ये सब लोग अपने प्रारब्ध वश ( पूर्व काल में किये गए कर्मो का फल )अवश्य ही मारे जायेंगे, तुम तो केवल एक निमत्त मात्र हो क्योंकि ये सभी लोग तो हमारे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं, और ये बात महाभारत के बाद सत्य प्रमाणित हुई जब बलशाली भीम के पौत्र बर्बरीक, जिनका सिर भगवन श्रीकृष्ण ने काट लिया था, कहा कि उन्होंने ने देखा है कि सबको भगवान् श्रीकृष्ण ही युद्ध में मार रहे थे | भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को शरीर और जीवात्मा के बीच के संबंध के बारे में विस्तार से बताया है कि जैसे मनुष्य अपने पुराने वस्त्र को छोड़कर नया वस्त्र धारण करता है ठीक उसी तरह से मनुष्य के शरीर के अंदर रहने वाली जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है | भगवान आगे कहते हैं कि यह जीवात्मा अविनाशी है और इसका किसी भी प्रकार से नाश नहीं हो सकता है | इसको न तो कोई शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है और न ही वायु सुखा सकती है इसलिए इस नश्वर शरीर के बारे में मनुष्य को रोक नहीं करना चाहिए |
इसके बाद भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सांख्य योग का उपदेश देते हैं और उन्हें इंद्रियों और विषयों को संयोग से उत्पन्न होने वाले सुख दुख से व्याकुल नहीं होने को कहते हैं | भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं किउन्हें सभी आसक्ति जनित कामनाओं का त्याग करना चाहिए क्योंकि आसक्ति जनित कामनाओं की पूर्ति होकर भी नहीं होती है, मनुष्य बूढ़ा हो जाता है किंतु उसकी कामनाएं कभी बूढ़ी नहीं होती हैं, एक कामना अनेक कामनाओं को जन्म देती है और उन कामनाओं के साथ मनुष्य के अंदर असंतोष भी जन्म लेता है, फिर असंतोष से अविवेक, अविवेक से बुद्धि का नाश और बुद्धि के नाश से स्मृति का नाश हो जाता है, और स्मृति के नाश होने से व्यक्ति का सर्वनाश हो जाता है, इसलिए आसक्ति जनित कामनाओं को विष के समान त्याग देना चाहिए |
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा रथ रूपी शरीर में बैठा हुआ रथ का स्वामी है, मन रथ का सारथी है और घोड़े मनुष्य की इंद्रिया हैं | जिस मनुष्य की इंद्रिया जीती हुई हैं अर्थात जिनकी इंद्रिया उनके मन के वश में हैं वह अपने आप का मित्र है और जिनकी इंद्रिया उनके बस में नहीं हैं अर्थात मन के आधीन है वह अपने आप का ही शत्रु है, इस लिए हे अर्जुन तुम अभ्यास ( इन्द्रियों में विषयों की ओर जाने से रोकना ) और वैराग्य ( इंद्रियों के विषयों के अपने को विमुख रखना और उसमे उदासीन रहना ) के द्वारा अपने मन का निग्रह करो | भगवान के कथनानुसार मनुष्य की इंद्रियों को सत्ता मन से मिलती है, मन को सत्ता बुद्धि से मिलती है, तथा बुद्धि ,आत्मा की सत्ता से आती है | भगवान् ने बताया है कि ईश्वर अनुरागी होने के लिए मन और इन्द्रियों का निग्रह आवश्यक है, भगवान्, अर्जुन को समझते हुए कहते हैं कि जैसे रथ के घोड़े, अगर सारथी के वश में हो तो वे उसे गंतव्य स्थान पर पंहुचा देते हैं ठीक उसी तरह जिस मनुष्य का मन उसके वश में होता है वह अंततः आध्यत्मिक मार्ग में उन्नति को प्राप्त कर लेता है |
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म योग का महान उपदेश देते हैं | भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, तुम निष्काम भाव से कर्म करो और उसके फल की चिंता मत करो, क्योंकि तुम्हारा केवल कर्म करने में ही अधिकार है, उसका फल तुम्हारे वश में नहीं है | आज जहाँ जरा सी निराशा मिलने पर लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं वे अगर गीता के इस कर्मयोग के रहस्य को समझ ले तो कभी आत्महत्या नहीं करेंगे | भगवान् आगे कहते हैं कि जो मनुष्य निष्काम भाव से अपने सभी स्वभाविक करने योग्य कर्मों को मुझको अर्पित करके करता है वह अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त होता है |
भगवान् श्रीकृष्ण के सभी योगों की अपेक्षा भक्ति योग को श्रेष्ट और सुगम कहा है जिनके माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है | गीता में भक्ति योग की चर्चा करता हुए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने ईश्वरीय स्वरूप के बारे में काफी विस्तार से बताया है | उन्होंने अर्जुन से कहा कि मैं ही चराचर जगत में व्याप्त पूर्णब्रह्म हूं और जो जिस भाव से मुझे भजता है मैं उसे उसी भाव से प्राप्त होता हूं | जो भक्त अपने सभी कर्मो को मुझमें अर्पित करके, इस सम्पूर्ण चराचर जगत में सबकुछ वासुदेव ( भगवन श्रीकृष्ण ) ही हैं, ऐसा समझता है वह भक्त बहुत ही दुर्लभ है और मोक्ष के योग्य है | इसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के आग्रह करने पर उन्हें अपना दिव्य विराट स्वरुप का दर्शन कराया | अंत में भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य गीता ज्ञान को सुनकर अर्जुन ने कहा की हे जनार्दन, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, तथा ज्ञान की प्राप्ति होने से अब मैं संशय रहित हो गया हूँ, इसलिए अब आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूँगा |
कुछ लोग यह सोच कर अपने बच्चों को गीता पढ़ने से रोकते हैं कि अगर वह गीता को पढ़ेगा तो हो सकता है कि वह सन्यासी होकर संसार से विरक्त न हो जाय | किंतु ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि जो अर्जुन युद्ध न करके सन्यास लेना चाहते थे उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के गीता के उपदेश को सुनकर अपना धर्म युक्त कर्म किया अर्थात धर्म के अनुसार युद्ध किया, न कि संसार से संन्यास लिया | तो ऐसे में यह सोचना उचित नहीं है की जो बच्चे गीता का पाठ करेंगे वे संसार से विरक्त हो जायेंगे |